भ्रष्टाचार को खत्म किए बिना ; गांवों की समृद्धिअसंभव

जो भारत की समृद्धि के मुख्य आधार और केन्द्रबिन्दु रहे । आज वे गांव अपने अन्तिम दिन गिन रहे हैं । शिक्षा , स्वास्थ्य रोजगार की निरंकता , स्तरहीनता ने जहाँ ग्रामीणों को अप्रत्याशित पलायन पर विवश किया । वहीं शासन – प्रशासन से लेकर जनप्रतिनिधियों , अवसंरचनाओं की बदहाली ने गांवों को अपने कुचक्र में इस तरह फांसकर बींध दिया कि – शासन की योजनाएँ और उनका क्रियान्वयन भ्रष्टाचार का पर्याय बनती चली गईं । सरपंचों से लेकर सचिव , रोजगार सहायक , अभियन्ता एवं वे सभी अधिकारी – कर्मचारी वर्ग जिनके कन्धों में ग्राम विकास का भार था ।

उन सभी ने मिलकर अपनी – अपनी हिस्सेदारी तय करके या तो कार्यों की औपचारिकता पूरी करने का ढोंग कर जिम्मेदारी पूरी कर ली । याकि केवल कागजी आंकड़ों में गांवों को विकसित और योजनाओं को मूर्त रुप देदिया ।इधर योजनाएँ दम तोड़ती रहीं , और उधर इन भ्रष्टाचारी पापियों ने गांवों के विकास के लिए आई धनराशि से अपना बैंक बैलेंस बढ़ाते रहे आए । गांवों की इस दारूण कथा को देखकर अदम गोंडवी की ये पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है । वास्तव में गांवों की वस्तुस्थिति इससे भी कहीं ज्यादा भयावह है । अधिकांशतः गाँव वासियों कोशासन की योजनाओं और निर्माण कार्यों की भनक नहीं लगती और वे पूर्ण हो जाते हैं ।

सरपंच , ठेकेदार , रोजगार सहायक , अभिवन्ता और तहसील , विकासखण्ड से लेकर जिला स्तर तक के लम्बी श्रृंखला की मिलीभगत के चलते रिश्वतखोरी के दम पर ग्राम पंचायतों में चलने वाले कार्यों की गुणवत्ता इतनी घटिया होती है कि साल , छः महीने के अन्दर निर्माण कार्य स्वतः ध्वस्त होने लगते हैं । फर्जी बिल और निरीक्षणकताओं की बेमानियों में खुले आम भ्रष्टाचार अपने चरम पर दिखता है । प्रत्यक्ष धनराशि का हस्तान्तरण भले बन्द हो गया हो , किन्तु भ्रष्टाचार , शोषण तथा योजनाओं को बेमौत मारने की घेराबन्दी अपने चरम पर दिखती है । सरपंच , सचिव , रोजगार सहायक इनकी तिकड़ी मिलकर योजनाओं से लाभान्वित होने वाले परिवारों से अपना हिस्सा गले में हाथ डालकर निकाल लेते हैं ।

लाभाची वेचारे मरते क्या न करते । इसलिए वे इन मक्कारों को शासन द्वारा प्रदत्त राशि में से हिस्सा दे देते हैं । फर्जी जॉब कॉर्ड से लेकर सरपंच अपने करीबियों को मनरेगा सहित अन्य निर्माणकार्यों में मजदूर दर्शा कर उनके नाम पर राशि गबन करते हैं । मनरेगा के कार्यों को मशीनों से करवाते हैं , जिससे ग्रामीण रोजगार पर असर पड़ता है । हालांकि मनरेगा से मिलनेवाली मजदूरी की राशि इतनी कम है कि अधिकतर मजदूर पंचायतों में काम करना पसन्द नहींकरते हैं ।लेकिन इसे भ्रष्टाचार का जरिया तो नहीं बनाना चाहिए । सवाल यह उठता है कि क्या यह सब बिना संरक्षण और मिलीभगत के चलते संभव होपारहा है ? सरपंचों द्वारा अपने निजी – राग द्वेष के चलते ग्राम पंचायत से सामाजिक सुरक्षा पेंशन एवं गृहनिर्माण के लिए प्रधानमंत्री आवास सहित जो योजनाएँ सीधे आवेदक / लाभार्थी के माध्यम से उन्हें लाभान्वित करती हैं । उनके आवेदन और प्रतिवेदन सरपंच , सचिवकभी देते ही नहीं है । गाँवो में इन योजनाओं का लाभ पाने की चाह में भटकने वालों को कभी कोई तो कभी कोई बहाना बनाकर ये त्रयी बेरंग लौटा देते हैं । अधिकांशतः तो यह भी देखने को मिलता है कि इन योजनाओं का लाभ दिलाने के नाम पर धनराशि की मांग भी सरपंच , सचिव इत्यादि के द्वारा की जाती है ।

सही ढंग से यदि गाँवों में सर्वेक्षण और सरकारी मशीनरी द्वारा निष्पक्ष जाँच करवाई जाए तो यह पता चलेगा कि -विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों से सरपंच , सचिवों ने सीधे हिस्सेदारी ली है । अपात्र लोगों के नाम जोड़कर उन्हें लाभ पहुंचाया है । फर्जी निर्माण कार्य दर्शा कर राशि आहरण कर ली गई है । ग्राम पंचायत में जो कार्य हुए हैं , उनकी गुणवत्ता निम्न कोटि की और निर्माण कार्य के लिए शासन द्वारा प्रदत्त राशि कई गुना ज्यादा है । गाँवों के भविष्य को गर्त में डालने वालों पर चुप्पी क्यों होनी चाहिए ? यह क्रम प्रत्येक पंचवर्षी अपने -अपने क्रम से अनवरत चलता रहता है।और गाँवों के विकास का लक्ष्य – स्वप्न धूल में मिलकर लोगों की आँखों को क्षति पहुंचाता है । इसे कौन दूर करेगा ? यह तो ग्राम पंचायतों की संरचना के मुख्य अङ्ग की बात रही । लेकिन गांवों को भ्रष्टाचार की खाई में धकेलने में अन्य अवसंरचनाओं का भी योगदान कम नहीं है आँगनवाड़ियों में फजीर्वाड़ा और बचपन एवं बालविकास , मातृत्व सुरक्षा , पोषण एवं संवर्द्धन के जिस उद्देश्य के लिए आँगनवाड़ियों का गठन किया गया था ।वे सभी दम तोड़ रहे हैं ।

आंगनवाड़ियों में कार्यरत – कार्यकर्ता , सहायिका दोनों की उपस्थित लगभग न्यून ही मिलती है । शासन द्वारा बच्चों के लिए उपलब्ध कराई जाने वाली खेल -सामग्री कार्यकर्ता , सहायिकाओं के घरों में मिलती है । इसके साथ ही जो राशि आई उस पर औपचारिकता पूर्ण कर बन्दरबाट में इनकी कुशलता के आगे बड़े – बड़े महारथी मात खा जाते हैं । यही हाल पोषण सामग्री और आंगनवाड़ियों से संचालित अन्य कार्यक्रमों का है ।

वास्तविकता यह है कि आँगनवाड़ियों का संचालन केवल और केवल भ्रष्टाचार और मुफ्त में राशि गबन का एक सशक्त माध्यम बन चुका है । सरकार का करोड़ों का बजट भले ही इनके लिए खर्च हो रहा हो , लेकिन परिणाम केवल आंकड़ों में दिखाई और सुनाई देता है । बाकी जमीनी हकीकत में शून्य से प्रारम्भ होकर शून्य में ही अटका हुआ है ।


कृषकों के लिए कार्य करने वाले पटवारीचुनावके अलावा कभीग्राम पंचायत को मुंह नहीं दिखाते , उनकी नौकरी केवल घर से पूरी होती है । ऊपर से किसानों के नामान्तरण , सीमांकन , खसरा – खतौनी , वारसाना सहित सभी कार्यों में जी भरकर रिश्वत लेते हैं और अपनी जेबें गरम कर ठसक के साथ दिखते हैं भले ही , पटवारी का वेतन हजारों में है लेकिन पांच साल के अन्दर वह करोड़पति बन जाता है।यह कैसे होताहै ? इसका अजूबा आज तक समझ नहीं आ पाया ।

राशन की दुकानों की स्थिति पूर्व से भले ही सुधरती हुई दिखती हो लेकिन दुकान संचालक गरीबों के निवाले को भी खा जाते हैं । दो हजार के अन्दर का वेतनवाला राशन दुकान संचालक भी करोड़ों का मालिक बन जाता है।महीने में गिनती के एक से दो बार दुकानें खोलेंगे । बाकी जिनको न मिल पाया , उनके हिस्से का बेच लेते हैं । कई बार तो यह भी देखने को मिलत है कि कई महीनों का राशन , राशन दुकान में उतरता ही नहीं और सेठों के पहले ही बिक जाता है ।

इधर गरीब जनता चिल्लाती रहती है , और ये कान में उँगली डालकर उनका निवाला छीन ! लेते हैं । जो ज्यादा उछल – कूद किए , उनके यहाँ रातोंरात पहुँचाकर मामले को शान्त करा दिया गया । बाकी जो गरीब हैं , उनके बेचारों के इतनी सामर्थ्य ही कहाँ होती है कि वे इन दरिन्दों के विरुद्ध अपनी आवाज उठा सकें । ठीक यही हाल स्वास्थ्य विभाग का है । ज्यादातर गांवों में शासकीय स्वास्थ्य केन्द्र ही नहीं हैं । बाकी जहाँ प्राथमिक या सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं , वहां चिकित्सकों का पूर्णतया अभाव है । फॉर्मासिस्ट , नर्स सहित अन्य जो भी उपलब्ध स्वास्थ्य कर्मचारी होते हैं । वे गाँवों में एक दिन आकर पूरे सप्ताह की हाजिरी लगाकर गायब रहते हैं । इनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं , जो महीनों दर्शन ही नहीं देते । और कुछ फील्ड ड्यूटी के नाम पर ऐशो आराम करते रहते हैं ।

गांवों में संचालित शासकीय स्कूलों के हालात भी कम गए – गुजरे नहीं हैं । शिक्षकों की कमी और गैर शैक्षणिक कार्यों में उनकी ड्यूटी के अलावा शैक्षणिक स्तर बिल्कुल ही कमजोर है । कुछ शिक्षक पढ़ाते कम हैं , इतना ही नहीं कुछ तो पढ़ाते ही नहीं । बल्कि वे केवल सिवासी प्रपंचों की जादूगरी दिखाने के लिए ही जाने जाते हैं । वे पढ़ाने के अलावा वे अन्य सभी कार्यों में बाँहे चढ़ाते हुए नजर आते हैं । कईयों ने तो नौकरी सरकारी की है , लेकिन साथ ही वे निजी विद्यालय का संचालन भी करते हैं । सरकारी स्कूलों को दोयम दर्जे का बतलाते हुए वे अपने स्कूल में दाखिले के लिए बरगलाते हुए दिखते हैं । स्कूलों में शिक्षकों की आन्तरिक राजनीति के चलते विद्यार्थियों का भविष्य चौपट होता जाता है । लेकिन माननीयों का वेतन तो बनता ही है , साथ ही वे पढ़ाने के अलावा अन्य कार्यों में ताल ठोंकने का सुख प्राप्त कर आत्ममुग्धता को प्राप्त करते हैं ।

हालाँकि गांवों की रीढ़ तोड़ने में सरकारों ने भी कोई कमी नहीं छोड़ी थी , लेकिन जो कुछ भी सरकारों ने किया । उसे इन सभी ने मिलकर पतन के गर्त में पहुंचा दिया । जब भी हम आत्मनिर्भर या समृध्द , खुशहाल गांवों की बात करते हैं , तब हम धरातलीय यथार्थ की इस महामारी की ओर क्यों नहीं देखते ? जहां से वास्तव में गांवों का उद्धार होता है ।

जब वहीं सभी अपने – अपने स्तर से गांवों को बबार्दी की आग में झोंकने के लिए तैयार बैठे हुए हैं , तब गांवों के विकास की कल्पना भी बेमानी है । सबसे पहले भ्रष्टाचार के इन कुचक्रों को तोड़कर भ्रष्टता की महामारी को जड़ से खत्म करना आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है । ( उपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं । )

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