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मध्य प्रदेश का चुनाव तय करेगा सिंधिया राजघराने का भविष्य

Shahid Naqvi

मध्य प्रदेश का विधान सभा चुनाव जरूर इंडिया गठबंधन में कांग्रेस की अहमियत तय करेंगे लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है ये चुनाव राजनेताओं के भविष्य के लिए। ये चुनाव अगर किसी राजनेता के भविष्य का फैसला करेगा तो वह भाजपा के ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। शिवराज सिंह चौहान अपने राजनीतिक जीवन में संघर्षों के बाद भरपूर सफलता पा लिए। वह ये भी जानते हैं कि हर कोई प्रधानमंत्री नहीं बन सकता है।यही बात दिग्विजय सिंह और कमलनाथ पर भी लागू होती है। दोनों नेता इस समय कांग्रेस के ताकतवर नेता हैं और हार के बाद भी आगे कुछ साल और रहेंगे।सत्ता सुख और संगठनात्मक सुख भी दोनों भरपूर मिल चुका है। रही बात परिवार की तो दोनों के अपने पुत्रों के लिए राजनीतिक जमीन तैयार कर चुके हैं।

मध्य प्रदेश कांग्रेस में हाल-फिलहाल ऐसा कोई नेता नहीं दिखाई देता जो इन दोनों लाड़लों के लिए चुनौती पेश कर सके।तो साफ है कि एमपी कांग्रेस का भविष्य भी इन नेता पुत्रों पर बहुत कुछ टिका है।विंध्य में स्व अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह राहुल पहले जरूर कुछ चुनौती पेश कर रहे थे, लेकिन उनकी चुनावी हारों ने उनको बहुत पीछे ढकेल दिया है।अपने क्षेत्र यानी कभी कांग्रेस के गढ़ रहे विंध्य में,जो कभी कांग्रेस के चाणक्य कहलाने वाले उनके पिता की भी कर्म भूमि रहा है में भी वह करिश्मा तो दूर सम्मानजनक सफलता भी नहीं दिला सके। राजनीतिक हलकों में तो कहा ये भी जाता है कि उनको स्थापित करने के लिए स्व अर्जुन सिंह ने कांग्रेस के कई जनाधार वाले नेताओं की घोर उपेक्षा भी की।जिसमें रीवा जिले की गुढ़ विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के निवर्तमान विधायक और वरिष्ठ नेता नागेंद्र सिंह का नाम प्रमुख है।


नागेंद्र सिंह अपने पूरे राजनीतिक जीवन में कभी विवादित नहीं रहे।कभी कोई ऐसा आरोप भी नहीं लगा जिससे विपक्षी उनको घेर सकें।वह कांग्रेस में थे तब भी उनका अपना खुद का जनाधार था,आज भाजपा में भी उनका अपना खासा जनाधार है और लोकप्रियता भी है। लेकिन उनको कई चुनाव में कांग्रेस से टिकट ही नहीं दिया गया।वह रीवा विधानसभा क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाना चाहते थे,लेकिन कांग्रेस में उनको कभी रीवा विधानसभा से टिकट नहीं दिया गया।जबकि उस समय नागेंद्र सिंह का रीवा में बहुत पकड़ थी, कांग्रेस यहां सफलता भी तलाश रही थी।तब भी नागेंद्र सिंह उपेक्षित ही रहे। गुढ़ से उनको टिकट कई विराम के बाद मिला भी तो वह आहत थे,इस लिए चुनाव लड़े ही नहीं।उनकी धर्मनिरपेक्षता पर भी कभी सवालिया निशान नहीं लगा।वह भाजपा में चुनावी राजनीति में बने रहने के लिए ही शामिल हुए थे।ये बात कही जा सकती है कि वह कांग्रेस में उपेक्षित थे,इस लिए भाजपा में शामिल हुए थे।


ये उनकी लोकप्रियता ही है कि चुनावी राजनीति से 2013 में ही संन्यास की घोषणा के बाद भी भाजपा उनको लगातार टिकट देकर गुढ़ के राजनीतिक समर में उतार रही है। बहरहाल ये तो अगले बात हो गई।असल मुद्दा ये चुनाव ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनितिक भविष्य का है। केंद्रीय राजनीति में होने के बाद भी विधानसभा चुनाव भला कैसे उनका भविष्य तय करेगा।दरअसल वह कांग्रेस में जिस कद के नेता थे,वह कद अभी उनका भाजपा में नहीं है।मध्य प्रदेश की राजनीति में सिंधिया राजघराने का दबदबा दशकों से रहा है।उनकी दादी स्व विजया राजे सिंधिया तो भाजपा की संस्थापक सदस्य के अलावा बहुत सालों तक पार्टी की आर्थिक धुरी भी थी।वैसे उन्होंने 1957 में कांग्रेस से अपनी राजनीतिक पारी शुरू की थी। वह गुना लोकसभा सीट से सांसद चुनी गईं। लेकिन कांग्रेस में 10 साल बिताने के बाद पार्टी से उनका मोहभंग हो गया।

पिता स्व माधवराव सिंधिया तो केंद्र की राजनीति के अहम किरदार थे

उनकी एक बुआ यशोधरा राजे सिंधिया भी एमपी की भाजपाई राजनीति में जाना पहचाना चेहरा था,सनद रहे कि उन्होंने इस बार चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है।सो अब सिंधिया राजघराने की राजनितिक विरासत को उसी पायदान पर बनाए रखने के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया पर ही सारा दारोमदार है।इसीलिए 2023 के चुनाव में उनका पूरा ज़ोर ग्वालियर-ग्वालियर चंबल संभाग पर है।कहा जा रहा है कि बीजेपी में सिंधिया का भविष्य कैसा होगा, ये इस पर भी निर्भर करेगा कि इस बार के चुनाव में ग्वालियर-चंबल की 34 विधानसभा सीटों में से कितनी सीटें जीत पाते हैं। क्यों कि 2018 के विधानसभा चुनाव में ग्लावियर-चंबल संभाग की कुल 34 सीटों में से कांग्रेस को 26 सीटों पर जीत मिली थी।ये उल्लेखनीय है कि तब सिंधिया कांग्रेस के हाथ के साथ थे।वहीं जब 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ की सरकार गिराई तो 22 विधायकों ने कांग्रेस और विधायकी से इस्तीफ़ा दे दिया था।इसके बाद इन सीटों पर उप-चुनाव हुआ और 22 में से 16 लोग बीजेपी के टिकट से जीतने में कामयाब रहे थे।शायद इसी आधार पर इस बार भी बीजेपी ने सिंधिया के इन सभी 16 वफ़ादारों को टिकट दिया है।सिंधिया 22 में से उन लोगों को भी बीजेपी का टिकट दिलाने में कामयाब रहे, जिन्हें उपचुनाव में हार मिली थी।


ग्वालियर चंबल सम्भाग की राजनीति पर नजर रखने वाले मानते हैं कि यहां किले की राह आसान नहीं है।ग्वालियर में रहने वाले तमाम आम लोग जो न बीजेपी समर्थक हैं और न कांग्रेस समर्थक हैं से बात करने पर वह साफ कहते हैं कि सिंधिया लालच में बीजेपी में गए लेकिन इससे उनका कद बड़ा नहीं हुआ है।सिंधिया से पहले ग्वालियर चंबल इलाक़े में जो बीजेपी का कुनबा था वो भी सिंधिया के आने से नाराज़ है और कई लोगों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया है।इस चुनाव में सिंधिया की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि बीजेपी में आने के बाद वह ग्वालियर चंबल में बीजेपी के पुराने समर्थकों और नेताओं को अपने साथ कैसे रखें।लोग ये भी कहते हैं कि ज्योतिरादित्य,सिंधिया परिवार की महिमा को आगे नहीं बढ़ा सकें हैं।

राजनीति में उनका वह रूतबा भी नहीं है जो कभी उनके पिता का था।वह क्षेत्र हर सभा में लोगों से सवाल करते हैं कि उन्होंने कमलनाथ सरकार गिरा कर गलत तो नहीं किया? क्यों कि जब सिंधिया ऐसा पूछते हैं तो लगता है कि उनमें इस बात लेकर कहीं न कहीं दुविधा है कि कांग्रेस छोड़ने के फ़ैसले से स्थानीय लोग नाराज़ तो नहीं हैं? वैसे ग्वालियर चंबल सम्भाग में अब तक सिंधिया राजपरिवार का दबदबा रहा है।माधवराव सिंधिया के कांग्रेस में जाने के बाद ग्वालियर उस समय चर्चा में आया था जब 1984 के आम चुनाव में उन्होंने बीजेपी के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी को हराया था।वह चुनाव चर्चा का विषय इसलिए बना था कि जनसंघ और बीजेपी का गढ़ माने जाने वाला ग्वालियर सिंधिया के गढ़ के रूप में सामने आया था। तभी से यह परंपरा चल रही है।माधवराव सिंधिया ने 1984 के बाद 1998 तक सभी चुनाव ग्वालियर से ही लड़े और जीते। 1996 में तो कांग्रेस से अलग होकर भी वह भारी बहुमत से जीते थे।


जबकि राजमाता गुना से लगातार बीजेपी प्रत्याशी के तौर पर जीतती रही।राजमाता की मौत के बाद माधवराव ने ग्वालियर छोड़कर गुना से चुनाव लड़ा था।वह कुल 9 बार संसद सदस्य चुने गये।उनकी विमान दुर्घटना में अकाल मौत के बाद उनके पुत्र ज्योतिरादित्य चुनाव मैदान में उतरे और रेकॉर्ड मतों के अंतर से जीते।2004 में भी उन्होंने इसी सीट से चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की लेकिन 2019 में वो अपनी इस सीट से भाजपा उम्मीदवार से चुनाव हार गए।लेकिन सिंधिया परिवार से आज तक कोई मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री नहीं बन सका।विजया राजे सिंधिया को पितम्बरा पीठ के मुख्य पुजारी पूज्यपाद स्वामी ने कोई सार्वजनिक पद लेने से मना कर दिया था।लेकिन माधवराव सिंधिया और ज्योतिरादित्य की इच्छा इस पद के लिए जोर-आजमाइश की।

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