राष्ट्रीयलाइफस्टाइल

‘प्रयाग’ के संगम मे जलावगाहन करने के लिए शताब्दियों से आता रहा जनसमुदाय

माघ-मास में देश-विदेश के विभिन्न अंचलों से विशाल जनसमुदाय ‘प्रयाग’ के संगम मे जलावगाहन करने के लिए शताब्दियों से आता रहा है, समीप से-सुदूर से, गाँवों से, नगरों से, झोपड़ियों से, भवनों से, वाहनों से तथा सर्वाधिक अपने पैरों से। उन सभी के साथ सिमटते आते हैं : विविध स्वर, भाषाएँ-बोलियाँ, चित्र, रंग, वेशभूषावाले आबाल वृद्ध-नर-नारियाँ, साधु-संन्यासी, गृहस्थ, निर्धन तथा धनवान! इस मेले मे अनेकता मे एकता के, वैविध्य मे समरसता के तथा आस्था, श्रद्धा और विश्वास के सजीव दर्शन होते हैं। यहाँ आने के लिए किसी को निमन्त्रणपत्र देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। भारत के कोने-कोने से आस्थावान् जन मार्ग की यातनाएँ सहते हुए, हृदय मे सह-अस्तित्व की भावना सँजोये यहाँ आते रहे हैं। उनकी भावना का ही विस्तार है कि जहाँ भी श्रद्धालुगण एकत्र हो गये, वहीं एक नया नगर बस गया: मीलों तक तम्बुओं का वितान और सामान्य से विशिष्ट कोटि के शिविरों का आकर्षण सम्पूर्ण वातावरण को कल्पवास की ओर डग भरने के लिए प्रेरित करता आ रहा है।

प्रयाग-दर्शन
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
“तीरथपति पुनि देखु प्रयागा”

तीर्थों के राजा अर्थात् तीर्थराज प्रयाग का अपना विशिष्ट महत्त्व है। आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय दृष्टिकोण से तीर्थराज प्रयागराज की महत्ता निर्विवाद है। पौराणिक और साहित्यिक दृष्टि से हमारे ऋषि-महर्षियों तथा महाकवियों ने अतिशय श्रद्धापूर्वक इसका गुणगान कर महिमामण्डन किया है। इसका प्रमुख कारण है कि गंगा-यमुना के पुनीत कूल पर हमारी लोकपूजित सभ्यता और उदात्त संस्कृति विकसित हुई थी। महाभारत के ‘आदिपर्व’ मे प्रयाग को सोम, वरुण तथा प्रजापति का उद्भव-स्थान कहा गया है। ‘वनपर्व’ मे पुलस्त्य धौम्य की तीर्थयात्रा-प्रसंग में कहा गया है कि वहाँ समस्त तीर्थों, देवी-देवों, ऋषि-मुनियों का वास है। यहीं पर देवतागण और महाजन ने श्रेष्ठ प्रकार के यज्ञकर्म निष्पादित किये थे। ‘अनुशासनपर्व’ में कहा गया है कि माघ-मास मे तीन करोड़ दस हज़ार तीर्थ प्रयाग मे एकत्र होते हैं। उस समय पवित्र त्रिवेणी जल मे स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोक का अधिकारी हो जाता है।

यज्ञस्थानों मे प्रमुख होने के कारण इसे ‘प्रयागराज’ भी कहते हैं। प्रयाग शब्द के साथ ‘तीर्थ’ और ‘क्षेत्र’ शब्द भी ‘पुण्यस्थल’ बोधनार्थ यदा-कदा प्रयुक्त होते देखे जाते हैं। ‘मत्स्यपुराण’ के अनुसार, प्रयागक्षेत्र की सीमा इस प्रकार है : पूर्व मे समुद्रकूप, पश्चिम मे कम्बल अश्वतर, उत्तर मे वासुकि तथा दक्षिण मे बहुमूलक। इसे ‘प्रयागमण्डल’ कहा गया है, जो तीनों लोकों मे ‘प्रजापति-क्षेत्र’ के रूप मे विश्रुत है। ‘मत्स्यपुराण’ के अनुसार, ‘प्रयागमण्डल’ का विस्तार २० कोस निर्धारित किया गया है। ‘अग्निपुराण’, ‘पद्मपुराण’ तथा ‘महाभारत’ ग्रन्थों के द्वारा भी इस परिसीमा का समर्थन किया गया है। त्रिवेणी की सीमा को इस रूप मे निर्धारित किया गया है :― प्रयागक्षेत्र मे सितासित सरिताओं के संगमस्थान पर २० धनुष लम्बाई-चौड़ाई का क्षेत्र ‘वेणी’ अथवा ‘त्रिवेणी’ के नाम से जाना जाता है। यहाँ ‘राजसूय’ यज्ञ की भाँति फल की प्राप्ति होती है। इस प्रकार ‘वेणी’ से अत्यधिक विस्तीर्ण ‘प्रयाग’ और प्रयाग से अधिक ‘प्रयागमण्डल’ है। ‘कल्पतरु’ के अन्तर्गत संगमस्थान ही ‘वेणी’ है। ‘तीर्थस्थली सेतु’ मे सुस्पष्ट संकेत है कि ‘ब्रह्मपुराण’ और ‘पद्मपुराण’ के अनुसार, त्रिवेणी ‘ओउम्’ का मूर्तरूप है। इसके ‘अ’, ‘उ’ तथा ‘म’ क्रमश: सरस्वती, यमुना तथा गंगा के प्रतिनिधि वर्ण हैं।

वास्तव मे, प्रयाग की गणना विश्व के शीर्षस्थ तीर्थ के रूप में की जाती है। इस तीर्थ की महत्ता को प्राचीनतम वेद ‘ऋग्वेद’ के दशम मण्डल की एक ऋचा मे इस आशय को प्रकट किया गया है :― जहाँ श्वेत और श्याम वर्ण की दो नदियों का संगमस्थान है वहाँ जो लोग स्नान करते हैं, वे द्युलोकगामी होकर स्वर्ग की प्राप्ति करते हैं और जो संगमस्थान में देहोत्सर्ग करते हैं, वे गमनागमन के बन्धन से रहित होकर मोक्ष के भागी होते हैं। कवि-कुसुमाकर, कवि-कलाधर, कविशिरोमणि कालिदास ने भी अपनी अमर काव्यकृति ‘रघुवंशम्’ मे प्रयाग-माहात्म्य को इस रूप में निरूपित किया है :―

“समुद्रपत्न्योर्जल सन्निपाते, पूतात्मनामत्र किला भिषेकात्।

तत्त्वावबोधेन विनापि भूयस्त- नुत्यजां नास्ति शरीरबन्ध:।।”

इसका आशय है कि समुद्र की दो पत्नियों : गंगा-यमुना के मिलनस्थल ‘संगम’ मे स्नान करके जो मनुष्य पवित्र हो जाते हैं, वे तत्त्वज्ञानी न होने पर भी संसार के आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।

लेखक, भाषाविज्ञानी और उनमुक्त चिन्तक हैं।
सम्पर्क-सूत्र
‘सारस्वत सदन’
२३५/११०/२-बी, अलोपीबाग़, प्रयागराज― २११ ००६
ई. मेल : [email protected]

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